इटावा जनपद में हर शैक्षिक सत्र की शुरुआत के साथ ही सैकड़ों अभिभावकों के सामने एक ही सवाल खड़ा हो जाता है बच्चों को पढ़ाना ज़रूरी है, लेकिन क्या इतनी महंगी किताबें और अतिरिक्त खर्च झेल पाना हर परिवार के बस की बात है? कई सीबीएसई और निजी विद्यालय बच्चों के भविष्य का हवाला देकर ऐसी पुस्तकों की सूची थमा देते हैं, जिनकी कीमत सुनते ही मध्यम और निम्न आय वर्ग के अभिभावकों की चिंता बढ़ जाती है। फीस पहले से ही भारी होती है, उस पर किताबों का बोझ परिवार की आर्थिक रीढ़ तोड़ देता है।

स्थिति तब और पीड़ादायक हो जाती है जब स्कूल प्रबंधन साफ शब्दों में कह देता है कि ये किताबें केवल तय की गई दुकान से ही खरीदी जाएँगी। बाहर से किताब लाने की आज़ादी नहीं, मोलभाव की गुंजाइश नहीं। कई अभिभावक बताते हैं कि यदि उन्होंने निर्धारित दुकान से किताबें नहीं खरीदीं तो बच्चों को कक्षा में असहज स्थिति का सामना करना पड़ा। यह शिक्षा नहीं, बल्कि डर और दबाव के जरिए की जाने वाली वसूली है, जिसका मानसिक असर सीधे बच्चों पर पड़ता है।
इटावा के अभिभावकों का दर्द सिर्फ जेब तक सीमित नहीं है, यह आत्मसम्मान से भी जुड़ा है। शिक्षा को सेवा माना जाता है, लेकिन जब किताबें पढ़ाने की जगह कमीशन का साधन बन जाएँ, तो सवाल उठना स्वाभाविक है। किताबों की कीमतें कई बार बाजार मूल्य से कहीं अधिक होती हैं, लेकिन मजबूरी में अभिभावक चुपचाप भुगतान कर देते हैं, क्योंकि दांव पर उनके बच्चों का भविष्य होता है।
यह समस्या केवल इटावा तक सीमित नहीं है। देश भर में इसी तरह की शिकायतों पर प्रशासन को सख्त कदम उठाने पड़े हैं। उत्तर प्रदेश के संभल जिले में जांच के बाद 33 निजी स्कूलों पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया, जहाँ यह पाया गया कि एनसीईआरटी की जगह महंगी निजी प्रकाशकों की किताबें अनिवार्य की गई थीं और अभिभावकों को तय दुकानों से खरीदने के लिए मजबूर किया गया।
मध्य प्रदेश के भिंड जिले में भी सात निजी स्कूलों पर जुर्माना लगा और अधिक वसूली गई राशि लौटाने के आदेश दिए गए। जबलपुर में दर्जनों स्कूलों और पुस्तक विक्रेताओं को नोटिस जारी कर किताबों में कमीशन और गठजोड़ पर जवाब मांगा गया। कई राज्यों में प्रशासन और सरकारें यह स्पष्ट कर चुकी हैं कि कोई भी स्कूल अभिभावकों को किसी विशेष दुकान से किताबें खरीदने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।
इन उदाहरणों के बाद भी इटावा के सीबीएसई और निजी विद्यालय नहीं माने, तो यह गंभीर चिंता का विषय है। अब ज़िम्मेदारी शिक्षा विभाग की बनती है कि वे इस पूरे तंत्र की गहन जांच करें। स्कूलों द्वारा मनचाही किताबें थोपने, तय दुकानों से खरीदारी का दबाव बनाने और किताबों को फीस के साथ जोड़कर वसूली करने जैसी कृत्यों पर तुरंत रोक लगे।
इटावा का शिक्षा विभाग स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करे, शिकायत तंत्र को सक्रिय बनाए और नियम तोड़ने वाले स्कूलों पर कड़ी कार्रवाई करे। शिक्षा डर और दबाव का माध्यम नहीं, बल्कि भरोसे और समान अवसर का आधार होनी चाहिए। यदि आज इस मनमानी पर अंकुश नहीं लगा, तो आने वाले समय में शिक्षा पूरी तरह बाजार के हाथों में चली जाएगी जिसकी सबसे बड़ी कीमत बच्चों और उनके अभिभावकों को चुकानी पड़ेगी।
अभिभावक संघ के जिला उपाध्यक्ष डॉ. आशीष दीक्षित ने शिक्षा विभाग से अपील करते हुए कहा कि इटावा में कई निजी एवं सीबीएसई विद्यालय बच्चों पर मनमाने ढंग से किताबें थोपते रहे हैं और अभिभावकों को निर्धारित दुकानों से ही खरीदारी के लिए बाध्य कर करते रहेस हैं, जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा कि शिक्षा का मूल उद्देश्य ज्ञान का प्रसार है, न कि अभिभावकों की जेब पर अतिरिक्त बोझ डालना। जब विद्यालय किताबों और स्टेशनरी को कमाई का जरिया बना लेते हैं, तो यह पूरी शिक्षा व्यवस्था की नैतिकता पर गंभीर सवाल खड़े करता है।

डॉ. दीक्षित ने कहा कि नया शैक्षिक सत्र शुरू होने जा रहा है, ऐसे में शिक्षा विभाग को तुरंत इस विषय पर स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए, ताकि स्कूल किसी विशेष दुकान से किताबें खरीदने का दबाव न बना सकें और मनमानी वसूली करने वाले संस्थानों के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि शिक्षा भय का नहीं, बल्कि विश्वास और समान अवसर का माध्यम होनी चाहिए।

