जंगली और मंगली, इटावा की वीर भूमि से निकले दो ऐसे रणबांकुरे थे जिनकी गाथा सुनते ही हृदय में गर्व की लहर दौड़ जाती है। बाल्मीकि समाज से आने वाले ये साधारण से दिखने वाले लोग असाधारण साहस और शौर्य के प्रतीक बन गए। इनका जीवन इस सच्चाई का प्रमाण है कि स्वतंत्रता की लड़ाई केवल राजाओं की नहीं थी, बल्कि हर वर्ग और हर समाज ने अपने खून की आहुति देकर इस ज्योति को प्रज्वलित रखा।
जब 1857 की क्रांति की गूँज देशभर में उठी, उस समय चकरनगर रियासत के राजा कुशल पाल सिंह चौहान और उनके पुत्र निरंजन सिंह जूदेव ने चंबल और दोआब क्षेत्र को स्वतंत्रता संग्राम का गढ़ बना दिया। इसी संघर्ष में जंगली और मंगली उनके सबसे विश्वासपात्र साथी बनकर उभरे।
जंगली और मंगली के साहस की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे मौत से बेखौफ थे। युद्धभूमि में तोपों की गड़गड़ाहट और गोलियों की बारिश भी उनके कदमों को डगमग नहीं कर सकती थी। वे तलवार और भाले के साथ ऐसे कूद पड़ते थे मानो मृत्यु को चुनौती दे रहे हों। उनकी निडरता से ही विद्रोही सिपाहियों में ऊर्जा और आत्मविश्वास भरता था।
इटावा के कलेक्टर ए.ओ. ह्यूम के नेतृत्व में जब अंग्रेजी सेना ने जुहीखा घाट से प्रवेश करने की कोशिश की, तो जंगली और मंगली अग्रिम मोर्चे पर डटे रहे। डभोली, दिलीप नगर, सिकरोड़ी और नदी घाटों की लड़ाइयों में उन्होंने अपने खून से धरती को सींचा। इन संघर्षों में अंग्रेज़ी फौजों को करारी हार का सामना करना पड़ा और दो वर्षों तक वे इस क्षेत्र में दाखिल न हो सके।
जंगली और मंगली की बहादुरी ने यह संदेश दिया कि सीमित साधनों और सामान्य हथियारों से भी साम्राज्यवादी ताकतों को चुनौती दी जा सकती है। यह चंबल की धरती का साहस था जो गुरिल्ला युद्ध की शैली में अंग्रेजों को बार-बार मात देता रहा। उनके संघर्ष ने दोआब और चंबल क्षेत्र को स्वतंत्रता संग्राम की मजबूत चौकी बना दिया।
निरंजन सिंह और उनके साथियों के लिए जंगली–मंगली किसी प्रहरी की तरह थे। वे हर मोर्चे पर आगे रहते, हर लड़ाई में अपनी पूरी ताकत झोंक देते। उनकी बहादुरी को देखकर किसानों ने हथियार उठाए, बागी सिपाहियों ने दुगुने जोश से लड़ाई लड़ी और महिलाओं ने भी उनका साथ दिया। वे प्रेरणा का स्रोत बन गए।
बाल्मीकि समाज से आने वाले इन योद्धाओं की यह गाथा इसलिए भी विशेष है क्योंकि उस दौर में और दुर्भाग्यवश आज भी इस समाज के योगदान को नज़रअंदाज किया जाता है। लेकिन जंगली और मंगली ने यह साबित कर दिया कि समाज का हर वर्ग भारत माता का सच्चा सपूत हो सकता है। उनका साहस सामाजिक समानता और राष्ट्रीय एकता का संदेश देता है।
युद्धभूमि में जंगली और मंगली का प्रदर्शन ऐसा था कि अंग्रेज अधिकारी भी उनकी वीरता को देखकर हैरान रह जाते थे। साधारण हथियारों के बावजूद वे अंग्रेजों के उन्नत हथियारों का सामना करते। उनके चेहरे पर कभी डर नहीं दिखा। वे लड़ते हुए मुस्कुराते थे, जैसे उन्हें पता हो कि उनका नाम आने वाली पीढ़ियों के दिलों में अमर हो जाएगा।
आज इटावा की मिट्टी, चंबल की हवाएँ और जुहीखा घाट का हर कण उनकी शहादत की गवाही देता है। लोग भले भूल जाएँ, लेकिन यह धरती कभी नहीं भूलेगी कि यहाँ दो साधारण बाल्मीकि योद्धाओं ने अंग्रेजों को चुनौती दी थी। उनकी गाथा पीढ़ी दर पीढ़ी लोककथाओं और किस्सों के रूप में जिंदा है।
इटावा लाइव इन दोनों गुमनाम शहीदों को नमन करता है। उनके बलिदान को शब्दों में बाँधना कठिन है, क्योंकि उन्होंने अपना सब कुछ देश को समर्पित कर दिया। वे अमर हैं, उनका नाम अमर है, और उनका आदर्श हमेशा पीढ़ियों को प्रेरणा देता रहेगा।
जंगली और मंगली की गाथा इटावा की पहचान है। यह गाथा बताती है कि 1857 की क्रांति केवल दिल्ली, झांसी या कानपुर की नहीं थी, बल्कि हर गाँव, हर गली और हर गुमनाम योद्धा ने इसमें अपनी भागीदारी निभाई। जंगली और मंगली उस जन–शक्ति के प्रतीक हैं जिनके बिना आज़ादी अधूरी होती।