किशनलाल जैन का जन्म 1 सितम्बर 1920 को अविभाजित भारत के आगरा और अवध संयुक्त प्रांत के राजागंज मोहल्ला, जिला इटावा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। वे झुन्नीलाल जी के समृद्ध परिवार में जन्मे थे। बाल्यकाल से ही उनकी शिक्षा इटावा में हुई और उन्होंने हाई स्कूल और सनातन धर्म इंटर कॉलेज में पढ़ाई की। उनके जीवन की दिशा उस समय बदल गई जब महात्मा गांधी का इटावा आगमन हुआ और किशनलाल जैन ने उनका भाषण सुना। गांधी जी की बातों से वे अत्यंत प्रभावित हुए और उसी क्षण उन्होंने तय कर लिया कि वे भी इस राष्ट्र की स्वतंत्रता की लड़ाई में अपना योगदान देंगे।
किशनलाल जैन का मन शुरू से ही क्रांतिकारी था। उन्होंने किशोरावस्था में ही यह ठान लिया था कि देश को आजादी दिलाना ही उनका जीवन उद्देश्य होगा। पढ़ाई के दिनों में भी वे आंदोलनकारियों से मिलते-जुलते रहते और आजादी की चर्चा में गहराई से रुचि रखते थे। जब 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की शुरुआत हुई, तो उन्होंने बिना किसी को बताए स्कूल छोड़ दिया और आंदोलन में शामिल हो गए। इस तरह का साहस उस समय के एक युवा छात्र के लिए बहुत बड़ी बात थी, लेकिन उनके भीतर का जुनून उन्हें पीछे हटने नहीं देता था।
आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण किशनलाल जैन को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया। उन्हें जेल में डाला गया, लेकिन वहां भी उनका जज्बा नहीं टूटा। एक बार जेल में उन्होंने खुद ‘खतरे का सायरन’ बजा दिया जिससे पूरे कारावास में अफरा-तफरी मच गई। जब सिपाहियों ने पूछा कि यह हरकत किसने की, तो निर्भीक किशनलाल ने आगे बढ़कर कहा कि यह काम उन्होंने किया है। अंग्रेज सिपाहियों ने उन्हें सजा के रूप में ऐसी बैरक में डाला जहां त्रिशूल गड़े हुए थे और खड़े रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। पर उन्होंने वह सजा भी हँसते हुए भोगी।
किशनलाल जैन नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज के लिए भी सहयोग करते रहे। वे न सिर्फ गांधीवादी थे, बल्कि क्रांतिकारी विचारों को भी आत्मसात किए हुए थे। उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने कदम पीछे नहीं खींचे। भारत की आजादी तक वे पूरे जोश, साहस और समर्पण के साथ देश की सेवा में लगे रहे। आजादी के बाद उन्होंने खुद को राजनीति में समर्पित किया और कांग्रेस पार्टी को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
स्वतंत्र भारत में किशनलाल जैन ने कांग्रेस पार्टी के शहर जिला अध्यक्ष के रूप में 30 वर्षों तक जिम्मेदारी संभाली। इसके अलावा उन्हें जिला परिषद अध्यक्ष और नगर पालिका अध्यक्ष की जिम्मेदारी भी दी गई, जिसे उन्होंने पूरी ईमानदारी और समर्पण के साथ निभाया। उनका राजनीतिक जीवन सेवा और सादगी का प्रतीक था। वे कभी भी स्वार्थ या पदलोलुपता के पीछे नहीं भागे और न ही कभी सत्ता की राजनीति में शामिल हुए।
प्रदेश के बड़े से बड़े नेताओं के लिए किशनलाल जैन एक आदर्श नेता थे। वे निस्वार्थ सेवा की प्रतिमूर्ति थे और सभी दलों के नेता—चाहे वे पक्ष में हों या विपक्ष में—उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते थे। वे गहरे चिंतनशील व्यक्ति थे और समाज के लिए सदा सोचते रहते थे। उन्होंने ‘कर्मवीर’ नामक एक साप्ताहिक समाचार पत्र की भी शुरुआत की थी, जिसमें सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को बेबाकी से उठाया जाता था।
वे अपनी दिनचर्या में भी पूरी तरह अनुशासित थे। वे दिन भर बजरिया स्थित अपने कार्यालय में रहते थे और लोगों की समस्याएं सुनते थे। केवल भोजन के लिए ही घर जाते थे और फिर तुरंत अपने काम पर लौट आते थे। लोगों के बीच उनकी छवि एक ऐसे ईमानदार और समर्पित नेता की थी जो केवल दूसरों के लिए जीता था। उनके पास जनसंपर्क का इतना व्यापक तंत्र था कि इटावा का हर वर्ग उनसे जुड़ा महसूस करता था।
किशनलाल जैन का व्यक्तित्व ऐसा था कि उनके विरोधी भी उनसे मिलने आते थे और उनकी सलाह लेते थे। उन्होंने राजनीति को सेवा का माध्यम माना, लाभ का नहीं। समाज सेवा, पत्रकारिता, राजनीतिक नेतृत्व, और स्वतंत्रता संग्राम जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उन्होंने अपना जीवन समर्पित किया। उन्होंने कभी भी निजी स्वार्थ को राष्ट्र और समाज के ऊपर नहीं रखा। यही कारण है कि उनका नाम आज भी लोगों की स्मृतियों में आदर और श्रद्धा से लिया जाता है।
उनका निधन 4 फरवरी 2011 को उनके ही जन्मस्थान राजागंज मोहल्ला, इटावा में हुआ। वे न केवल इटावा बल्कि पूरे प्रदेश के लिए प्रेरणा के स्रोत थे। उनके जैसा नेता, स्वतंत्रता सेनानी और समाजसेवी शायद ही इटावा को फिर कभी मिले। जब तक इटावा का इतिहास लिखा और पढ़ा जाएगा, तब तक किशनलाल जैन का नाम उसमें स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। उनका जीवन आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा है कि कैसे निस्वार्थ सेवा और समर्पण से राष्ट्र की सेवा की जा सकती है।