27 अक्टूबर 1954 को जन्मे स्वर्गीय अशोक दुबे “दद्दा” उस दौर में राजनीति में सक्रिय हुए जब इटावा की धरती पर समाजवादी राजनीति का गढ़ बेहद मजबूत था और भारतीय जनता पार्टी के लिए यहां अपनी पहचान बनाना कठिन माना जाता था। ऐसे कठिन समय में उन्होंने न केवल भाजपा का परचम लहराया बल्कि लोगों के दिलों में भी अपनी जगह बनाई। उनकी पहचान सिर्फ एक नेता तक सीमित नहीं रही, बल्कि वे सच्चे जनसेवक, जुझारू योद्धा और अत्यंत मिलनसार इंसान के रूप में जाने गए। आमजन उन्हें स्नेह और सम्मान से “दद्दा” कहकर पुकारते थे, और इस संबोधन में जनता का विश्वास, अपनापन और गहरा सम्मान झलकता था।
स्वर्गीय अशोक दुबे “दद्दा” का जन्म एक संस्कारी और सुसंस्कृत परिवार में हुआ। उनके पिता स्वर्गीय जगत नारायण दुबे और माता स्वर्गीय शकुन्तला देवी स्वयं उच्च नैतिक मूल्यों और सामाजिक सरोकारों से जुड़े हुए थे। इन्हीं पारिवारिक संस्कारों ने “दद्दा” को जीवनभर जनसेवा और समाजहित के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपने पीछे एक ऐसा परिवार छोड़ा है, जो आज भी उनके आदर्शों और सिद्धांतों को संजोए हुए समाजसेवा की राह पर अग्रसर है।
उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कुसुम दुबे ने जीवनभर उनके संघर्षों में कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया और आज भी उनकी राजनीतिक व सामाजिक विरासत को आगे बढ़ा रही हैं। पुत्र अंशुल दुबे अपने पिता के सपनों और आदर्शों को जीवन में आत्मसात कर जनता की सेवा में सक्रिय हैं, वहीं पुत्रवधू संध्या शर्मा प्रशासनिक सेवा में रहकर समाजहित में योगदान दे रही हैं। उनकी दोनों बेटियाँ भी परिवार की परंपराओं, संस्कारों और मान्यताओं को आगे बढ़ाने में सतत प्रयासरत हैं। पूरा परिवार आज भी “दद्दा” की स्मृतियों को हृदय में संजोए हुए है और उनके अधूरे सपनों को पूरा करने के संकल्प के साथ समाज के बीच उनकी पहचान को जीवंत बनाए रखने में निरंतर जुटा है।
दद्दा का जीवन संघर्षों और त्याग से भरा रहा। औरैया के छोटे से गांव चिरुहूली से निकलकर उन्होंने इटावा की राजनीति में अपना स्थान बनाया। बचपन के संस्कारों ने उन्हें सादगी और सेवा की राह दिखाई। छात्र जीवन से ही उनके भीतर नेतृत्व की भावना पनपने लगी थी। जब उन्होंने के.के. डिग्री कॉलेज से राजनीति की शुरुआत की, तो छात्रों ने उनमें एक सच्चे प्रतिनिधि की झलक देखी। धीरे-धीरे उनका संपर्क समाज के हर वर्ग से हुआ और लोगों ने उन्हें अपने परिवार के सदस्य की तरह स्वीकार किया।
नौकरी के दौरान भी उनका मन समाजसेवा में ही रमता था। ग्रामीण बैंक के शाखा प्रबंधक की जिम्मेदारी निभाते हुए वे हमेशा गरीबों और वंचितों की मदद करते थे। लेकिन उनके दिल में राजनीति और जनसेवा का जोश इतना गहरा था कि उन्होंने स्थायी नौकरी छोड़ दी। यह त्याग ही उनकी निष्ठा और समर्पण का प्रतीक है, जो आज के समय में विरला ही देखने को मिलता है।
राम मंदिर आंदोलन में उनकी भूमिका निर्णायक रही। गिरफ्तारी और जेल जाने के बावजूद उनका मनोबल अटूट रहा। वे हमेशा कहा करते थे कि “सच्चा संघर्ष बिना कष्ट के पूरा नहीं होता।” यही विचार उनके जीवन का सार बन गया। उस समय जनता ने उनमें एक निर्भीक और अडिग नेता की छवि देखी, जिसने इटावा के युवाओं को नई दिशा दी।
1989 में पहली बार चुनावी मैदान में उतरे दद्दा को हार का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने हार को अपनी कमजोरी नहीं बल्कि सीख समझा। 1991 में उन्होंने सपा के गढ़ में जीत हासिल की। यह जीत इटावा के इतिहास में भाजपा के लिए मील का पत्थर बनी। हजारों कार्यकर्ताओं ने इसे अपनी जीत माना और दद्दा को अपना मार्गदर्शक स्वीकार किया। लोग कहते हैं कि यह सिर्फ जीत नहीं थी, बल्कि जनविश्वास का सम्मान था।
भले ही 1993 में हार मिली, लेकिन पार्टी ने उनके योगदान और संघर्षशील छवि को पहचाना। 1996 में विधान परिषद सदस्य बनने के बाद भी वे जमीन से जुड़े रहे। उनका घर हमेशा जनता के लिए खुला रहता था। लोग कहते थे कि दद्दा के दरवाजे पर कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता। चाहे समस्या छोटी हो या बड़ी, वे हर किसी को गंभीरता से सुनते और समाधान करने का प्रयास करते।
2012 का चुनाव भी उन्होंने पूरी निष्ठा से लड़ा। इस बार भी जनता ने उनके प्रयासों को सराहा, भले ही परिणाम उनके पक्ष में न आए। लेकिन चुनावी हार जीत से ऊपर उठकर वे हमेशा जनता के दिलों में बसे रहे। इटावा के गली-कूचों से लेकर गांव-कस्बों तक उनका नाम सम्मान से लिया जाता रहा। उनकी सरलता और सहज व्यवहार ने उन्हें लोगों के बीच परिवार का हिस्सा बना दिया।
13 फरवरी 2021 की रात जब बीमारी से जूझते हुए दद्दा ने अंतिम सांस ली, तो पूरे इटावा में शोक की लहर दौड़ गई। उनका जाना मानो पूरे जनपद की धड़कन का थम जाना था। अशोक नगर स्थित उनके आवास पर उमड़ा जनसैलाब उनकी लोकप्रियता का साक्षी था। अंतिम यात्रा में हर किसी की आंखें नम थीं। लोग एक स्वर में कह रहे थे कि “आज इटावा ने अपना भीष्म पितामह खो दिया।”
दद्दा के निधन के बाद इटावा क्लब में आयोजित श्रद्धांजलि सभा में नेताओं और कार्यकर्ताओं ने कहा कि अशोक दुबे केवल भाजपा के नेता नहीं थे, बल्कि वे इटावा की आत्मा थे। उनकी दूरदर्शिता, संघर्ष और सेवा भाव आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्त्रोत है। कई कार्यकर्ताओं ने स्वीकार किया कि दद्दा ही उनके राजनीतिक जीवन के मार्गदर्शक रहे हैं।
आज भी जब लोग इटावा भाजपा की ताकत और संघर्ष की बात करते हैं, तो अशोक दुबे का नाम सबसे पहले लिया जाता है। वे सच्चे अर्थों में “भीष्म पितामह” थे, जिन्होंने जीवन भर त्याग, सेवा और संघर्ष का मार्ग अपनाया। उनका जाना एक अपूरणीय क्षति है, लेकिन उनकी स्मृतियाँ, उनके विचार और उनके आदर्श हमेशा जीवित रहेंगे। दद्दा का जीवन हमें यह सिखाता है कि राजनीति केवल पद पाने का माध्यम नहीं, बल्कि जनता की सेवा और समाज को नई दिशा देने का संकल्प है।