जब आपसे कोई पूछे कि क्या इटावा का नाम ईंटों के कारण पड़ा, तो आप पूरे आत्मविश्वास के साथ उन्हें बता सकते हैं कि नहीं, यह नगर कभी इष्टिकापुरी था और उसी से बदलकर आज इटावा बना है। यही पहचान इटावा की असली पहचान है, एक धार्मिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर से भरपूर। इटावा का नाम ईंटों से जोड़कर देखना अपने इटावा के गौरवशाली इतिहास को ख़त्म करने जैसा है।

अभी तक बहुत से लोगों की धारणा यही रही है कि इटावा का नाम ईंटों के कारण पड़ा है। स्थानीय स्तर पर भी यह भ्रांति व्याप्त है कि चूंकि यहां पर प्राचीन काल से ही ईंटों का निर्माण और व्यापार होता रहा है, इसलिए इस जिले को “ईट वाला” या “ईटावा” कहा जाने लगा। लेकिन इतिहास और पुराणों में वर्णित तथ्यों की गहराई में जाने पर यह धारणा पूरी तरह गलत साबित होती है। इटावा का नाम ईंटों से नहीं बल्कि एक धार्मिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जुड़ा हुआ है, जो इस स्थान को एक प्राचीन और गौरवशाली पहचान देती है।

दरअसल, प्राचीन काल में इटावा को इष्टिकापुरी के नाम से जाना जाता था। इस नाम का आधार यहां स्थित इष्ट देवताओं के अनेक मंदिर हैं। “इष्टिकापुरी” शब्द संस्कृत के “इष्ट” और “पुरी” से मिलकर बना है। “इष्ट” का अर्थ होता है पूजनीय या आराध्य और “पुरी” का अर्थ होता है नगर या स्थान। अर्थात यह स्थान देवताओं का प्रिय नगर माना जाता था, जहां धार्मिक आस्था और अध्यात्म की विशेष भूमिका रही है।

भविष्य पुराण जैसे पौराणिक ग्रंथों में भी इटावा का उल्लेख इष्टिकापुरी के रूप में मिलता है, जो यह प्रमाणित करता है कि यह स्थान अत्यंत प्राचीन और धार्मिक महत्व वाला रहा है। समय के साथ-साथ लोगों की बोलचाल और भाषा में हुए बदलावों के कारण “इष्टिकापुरी” शब्द धीरे-धीरे परिवर्तित होता हुआ “इटावा” बन गया। यह प्रक्रिया भारत के अन्य प्राचीन नगरों के नामों में भी देखी जाती है, जहां मूल संस्कृत नाम स्थानीय भाषाई स्वरूप में बदल जाते हैं।

इतिहासकारों और पुरातत्वविदों का भी मानना है कि इटावा का अस्तित्व कम से कम 5000 वर्ष पुराना है। महाभारत काल में जब पांडवों को वनवास और अज्ञातवास भुगतना पड़ा था, तब उन्होंने भारत के विभिन्न स्थानों में निवास किया था। ऐसी मान्यता है कि पांडवों ने अपने अज्ञातवास का एक वर्ष इटावा क्षेत्र में भी बिताया था। यह क्षेत्र प्राकृतिक दृष्टि से उपयुक्त और सुरक्षित माना जाता था।

महाभारत की कथाओं में वर्णित भीम और बकासुर का युद्ध भी इटावा की धरती से जुड़ा हुआ माना जाता है। बकासुर एक राक्षस था जो इस क्षेत्र में आतंक का कारण बना हुआ था, और भीम ने उसका वध करके इस क्षेत्र को उससे मुक्त कराया था। यही नहीं, हिडिंबा और अन्य राक्षसी शक्तियों का भी यहां उल्लेख मिलता है, जो इस क्षेत्र की पौराणिक घटनाओं को और अधिक प्रामाणिक बनाता है।

इतिहास में यह भी उल्लेख मिलता है कि पांडवों ने महाभारत युद्ध की योजना की शुरुआत भी यहीं की थी। यह दर्शाता है कि यह स्थान केवल निवास भर का ही नहीं बल्कि रणनीतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण रहा है। यहां की भौगोलिक स्थिति और गंगा-यमुना दोआब का क्षेत्र इसे एक खास महत्व प्रदान करता है, जो पुरातन समय में भी लोगों को आकर्षित करता था।

इष्टिकापुरी की यह ऐतिहासिक और पौराणिक पृष्ठभूमि यह सिद्ध करती है कि इटावा का नाम महज ईंटों की वजह से नहीं पड़ा, बल्कि इसके पीछे एक लंबा सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक सिलसिला जुड़ा हुआ है। जो लोग अब तक इसे केवल ईंटों के व्यापार से जोड़ते थे, उनके लिए यह जानकारी एक चौंकाने वाला लेकिन सत्य तथ्य हो सकता है।

आज जब हम इटावा को आधुनिकता की ओर बढ़ते देख रहे हैं, तो हमें इसके गौरवशाली अतीत को भी समझना और पहचानना चाहिए। एक ऐसा नगर जिसकी जड़ें हजारों वर्ष पुरानी संस्कृति में हैं, वह महज एक सामान्य नाम से सीमित नहीं किया जा सकता। इटावा, वास्तव में इष्टिकापुरी है — एक पूजनीय और ऐतिहासिक नगर।

