इटावा ,जसवंतनगर।क्षेत्र में तेजी से बढे अन्ना गोवंश,आवारा पशुओं,नीलगाय, पहाड़ी तथा जंगली सुअरों के उत्पात से फसलों पर संकट मंडराते रहते है। सैकड़ों की संख्या में किसानो ने रबी की फसल की सिंचाई कर खाद का छिड़काव भी कर दिए हैं। ऐसे में पशुओं का झुंड खेेतों में घ़ुसकर लहलहाती फसलों को बर्बाद कर देते है।
फसल के नुकसान की चिंता किसानों को खाए जा रही है। कोहरे भरी रात की कड़कड़ाती ठंड के मौसम में किसान रातो में जागकर फसलों की रखवाली करते हैं। लेकिन पशुपालन और कृषि विभाग की तरफ से इस बारे में अभी तक कोई कार्ययोजना नहीं बनाई जा सकी है।
इससे करीब 100 वर्ष पहले बीसवीं सदी के प्रारंभ में कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानी पूस की एक रात के मुख्य पात्र हल्कू की तरह आज का किसान भी हांड कपाने वाली इस ठंड में अपनी फसलों की रखवाली को मजबूर हैं।
पूस की एक रात कहानी का मुख्य पात्र गरीब हल्कू पूस की एक रात एक मोटी चादर के सहारे खेत की रखवाली कर रहा है, आग जलाकर तापता है आग से मन व शरीर को सुकून देने वाली गर्माहट इतनी अच्छी लगती है कि वहीं सो जाता है। लेकिन यहां बीहड़ी क्षेत्र के यमुना नदी की तलहटी व ऊपरी गांव में ग्राम नगला तौर के बुजुर्ग किसान रामनिवास, सत्यपाल बघेल के आलावा रामपाल सिंह गोतम का 20 वर्षीय पुत्र अतुल गोतम अपने पिता की मौत के बाद पढ़ाई के साथ साथ अपनी मां राजकुमारी और छोटे भाई के आलावा तीन वहनों की जिम्मेदारी निभानें में हल्कू वाला किरदार निभा तो रहा है लेकिन सर्द रातो में आग जलाकर सोने के बजाय रातों में जाग कर इस कोने से लेकर उस खेत में दौड़ कर जंगली जानवरों व आवारा पशुओं को खदेड़कर पौ फटने के इंतजार में आसमान को ताक़-ताककर खेतो की रखवाली को मजबूर है। इसी के आलावा गांव घुरा जाखन के रहने वाले महाराज सिंह ने बताया कि वह तो यमुना नदी के किनारे पर खेतो में फसल की रखवाली करते हैं कभी कभी तो जंगली जानवरो से भी अपना वचाव करना पड़ता है।
सौ वर्षों वाले हल्कू के पास झबरा कुत्ता था लेकिन आज के हल्कू के पास भौंकने को कुत्ता नहीं बल्कि एक टीन का डब्बा पीटपीटकर पशुओं को भगाने का असफल प्रयास करते करते भौर होने तक आज का हल्कू बेदम हो जाता है। फिर भी जंगली आवारा पशु लहलहाती फसल चर के खत्म कर देते हैं।
हल्कू की इस कहानी को लिखे मुंशी जी को तकरीबन सौ बरस हो गए। इन सौ वर्षों में हजारों पूस की रातें आईं। देश में विज्ञान व इंटरनेट आदि से बहुत तरक्की हुई। कहने का मतलब यह कि तरक्की की राह में शेष दुनिया के साथ हम चलते ही नहीं हैं बल्कि आगे निकल जा रहें हैं पर इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि हल्कू आज भी है। अब भले सेठ साहुकारों से नहीं सताया जाता है लेकिन कर्ज तो लेता है, बैरन मौसम से हर वर्ष जूझता है। कभी सूखे की मार सहता है तो कभी बाढ़ की, कभी ओला वृष्टि की।आज का हल्कू बैंक और मौसम की मार झेलता हुआ उन्हीं अन्ना गोवंश,नीलगायों, जंगली सुअरो,से अपनी फसल की रखवाली कर रहा है। जिनसे मुंशी जी का हल्कू अपनी फसल नहीं बचा सका था। आज भी अतुल जैसे नौजवान किसान, रामनिवास, सत्यपाल, महाराज सिंह जैसे सैकड़ों किसान हल्कू बनकर खेत में मचान बना कर पशुओं को भगाते है।
फिर भी आवारा गौवंश, नीलगाएं और सुअर वैसे ही फसलों को तबाह कर रहीं हैं जैसे पहले किया करती थीं।
इन सौ वर्षों में हमने जो भी तरक्की की पर आज के हल्कू के खेत की रखवाली के लिए ऐसा सस्ता उपाय नहीं खोज सके जो उसकी फसल बचाने में सहायक हो। सभी हल्कू न तो बैट्री या बिजली चालित यंत्र लगवा सकते हैं और न ही खेत की तारबंदी कर सकते हैं जिससे फसल बच जाए। देश की हर जनता को दो वक्त की रोटी उपलब्ध कराने वाला हल्कू खेत में अब भी पूस की रात काट रहा है।
जंगली जानवरों, नीलगायों द्वारा अपनी फसल रौंदे जाने की पीड़ा सहता है।
जरूरत इस बात की है कि हल्कू का खेत जंगली पशु से बचाने के लिए उसकी क्षमता के अनुरूप तकनीक इजाद की जाए। खेत के चारो तरफ साड़ी और धोती की बाड़ लगा कर अथवा धोखे का पुतला खड़ा देख कर जंगली जानवर अब नहीं भागते हैं। वह कपड़े की बाड़ के नीचे से घुस जाते हैं, पुतले के बगल से खेत में घुस कर पूरी फसल तबाह कर देते हैं। खेती यदि उद्योग का दर्जा पाती तो शायद इस तरफ फायदा देख हल्कू की इस पीड़ा के प्रति सकारात्मक सोच बनती।
इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि हल्कू आज भी है। अब भले सेठ साहुकारों से नहीं सताया जाता है लेकिन कर्ज तो लेता है, बैरन मौसम से हर वर्ष जूझता है।
फोटो:-ग्राम नगलातौर, जाखन, घुरा के रहने वाले हल्कू के किरदार में मचान पर अलग अलग बैठे किसान।