लखना/बकेवर:- टेसू मेरा यहीं अड़ा खाने को मांगे दही बड़ा..टेसू अगर करे, टेसू मगर करे, टेसू लेही के टरे..टोली में द्वार-द्वार आने वाले बच्चों के मुख से तोतली आवाज में गाए जाने वाले बोल अब नहीं सुनाई देते। टेसू लेकर घर-घर जाकर विवाह का निमंत्रण देती बच्चों की टोलियां नगर में नजर नहीं आतीं। लोक संस्कृति से जुड़ा टेसू-झेंझी का विवाह उत्सव इंटरनेट जमाने की नई पीढ़ी को आकर्षित नहीं कर पा रहा है।
कस्बों में भी इस उत्सव की उमंगें कम हो चली हैं तो गांवों में परंपरा का निर्वाह सीमित है।
लोक संस्कृति के इस पर्व के संवाहक नन्हे-मुन्ने बच्चे ही हुआ करते थे। नई पीढ़ी के अधिकांश बच्चों का इससे अनभिज्ञता की वजह से रुझान नहीं है। बालिकाओं की टोली द्वारा झेंझी के साथ घर-घर जाकर नेग मांगने के तौर पर गाया जाने वाले गीत ‘लाल रंग की बिदी मांगे, चार पटे की चादर मांगे, मेरी झेंझी को रचो है ब्याह..’ की सुनहरी यादें अब सिर्फ महिलाओं के दिलो दिमाग में बसी हैं।
विजयदशमी पर रावण वध के साथ ही टेसू-झेंझी लेकर बालक-बालिकाओं की टोलियां घर-घर नेग मांगने के लिए निकल जाती थीं।
शरद पूर्णिमा पर टेसू-झेंझी का विधि विधान से विवाह कराया जाता था। इनको बनाने वाले कुंभकार परिवारों के सामने मिट्टी की सहज उपलब्धता का संकट है। टेसू व झेंझी महाभारत कालीन चरित्र हैं।