पृथ्वीराज चौहान को 1192 ई0 में तराईन के द्वितीय युद्ध में मुहम्मद गौरी ने पराजित कर 1193ई0 में कन्नौज्ा पर आक्रमण कर आसई में पूरा खजाना लूट लिया था। यह युद्ध राजा जयचन्द्र ने चन्द्रवार (फिरोजाबाद) में लड़ा था। जयचन्द्र ने ही मुहम्मद गौरी को पृथ्वीराज चौहान के विरूद्ध आमंत्रित किया था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि जयचन्द्र और मुहम्मद गोरी का युद्ध इटावा और इकदिल के मध्य हुआ था। इस युद्ध में गौरी के 22 हजार सैनिक तथा 22सेनापति मारे गये थे। जनश्रुति है कि आज भी इन 22 सेनापतियों की कब्र इटावा मे बनी हुई है जिसे बाइसख्याजा कहा जाता है। इटावा के चौहान राजा सुमेर शाह ने भी जयचन्द्र की ओर से युद्ध लड़ा था । इस युद्ध में तोपों से किला को विस्मार कर दिया गया था।
कन्नौज पर बनारस के गहड़वाल बंश के अधिकार का उल्लेख 1104 ई0 के गोविन्दचन्द्र के बसही अभिलेख में मिलता है। यह कालखण्ड गजनवी के आक्रमणों के बाद तथा मुहम्मद गोरी के आक्रमणों के बीच राजपूतों के विस्तार का काल है। गोविन्द चन्द्र के पश्चात जयचन्द्र(1170-1194ई0) कन्नौज की गद्दी पर बैठा। इटावा भी उसके अधिकार में आ गया । जयचन्द्र ने एक विशाल सेना का गठन किया। पृथ्वीराज रासो के अनुसार सेना में 10 लाख पैदल तथा 220 हाथी थे। जयचन्द्र ने इटावा सामरिक महत्व को देखते हुये यहां यमुना के किनारे किले का निमार्ण कराया। किवदंती है कि इस किले से एक सुरंग कन्नौज तक जाती थी। 1194 में जयचन्द्र की पराजय एवं मृत्यु के पश्चात राजा ने इस किले पर अधिकार कर लिया।
इटावा के ही निकट चन्दावर (अब फिरोजाबाद जिले में ) 1194 में गहड़वाल राज्य का केन्द्रीय अस्ितत्व समाप्त हो गया था। इस घटना के कारण तात्कालिक प्रभाव से इटावा क्षेत्र में मेवों का आतंक छा गया। यह एक युद्ध प्रिय जाति थी । सुमेरशाह ने इटावा के किले को केन्द्र बनाकर मेवों का दमन किया तथा उनके हाथों से 1262 मौजे छीन लिये। सुमेरशाह के पश्चात उनके पुत्र जयसिहं गद्दी पर बैठे। जयसिहं का राज्यकाल तो उपलब्ध नहीं है परन्तु अफगान शासन की अधीनता स्वीकार करने का उल्लेख अवश्य मिलता है अत:उनका काल 1290 के पश्चात खिलजियों के काल में राह होगा।जयसिहं को दिल्ली की और से एक अतिरिक्त जागीर भी दी गयी थी । कहा जाता है कि जयसिहं ने ही अपने नाम पर यमुना से थोड़ी दूर पर लालपुरा के निकट जटपुरा भी बसाया। उनके पुत्र ने यमुना के किनारे दाउदपुर बसाया। शक्ित सिहं ने सकटपुरा बसाया तथा दोनों गांव ब्राह्मणों को दान में दे गये।