छठी शाताब्दी ईसा पूर्वा में जब बैदिक धर्म के विरूद्ध धार्मिक क्रांति हुई और महात्मा बुद्ध तथा महावीर स्वामी ने इसका नेतृत्व किया तो इटावा भी इसमें शामिल था। इटावा के निकट स्िथत मथुरा जहां वैष्णव धर्म का केन्द्र बन रहा था, वहीं इटावा के गांव आसई क्षेत्र में महावीर स्वामी ने अपना चातुर्मांस व्यतीत किया । जहां से प्रचुर मात्रा में जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां भी प्राप्त हुई है। महात्मा बुद्ध के भ्रमण की सीमा मथुरा तक रही है। अत: इस क्षेत्र में उनका आना भी प्रमाणित है।
मौर्यकाल के पतन के पश्चात मगध पर तो शुंग आर कण्वों का राज्य स्थापित हो गया तथा इटावा का क्षेत्र कुषाणों के अधीन आ गया। 78ई0 में कनिष्ठ (कुषाण) पुरूषपुर (पेशावर)की गद्दी पर बैठा। काबुल से काशी तक का क्षेत्र उसके अधिकार में था। मथुरा उसकी उप राजधानी थी। इस प्राकर इटावा कनिष्ठ के राज्याधिकार में आ गया। इटावा क्षेत्र के चक्रनगर एवं आसई से कुषाणकलीन ईंटें प्राप्त हो चुकी है। इस क्षेत्र से काले पॉलिशदर मृदभाण्ड भी मिले हैं। चक्रनगर के खेरे पर इस काल के अवशेष बिखरे पडे़ है। इस टीले की निचली सतहों से व्यापक अवशेष मिलने की संभावनायें है।
गुप्तकाल, भारत का स्वर्णकाल कहा जाता है। लेकिन कुषाणकाल के पतन तथा गुप्तकाल के आरम्भ होने तक की बीच की अवधि में पुन: छोटे-छोटे राज्यों का उदय हो चुका था। इस समय ग्वालियर स्िथत पद्मावती राज्य क्षेत्र इटावा में आता था। एक प्रकार से यह पद्मावती का उत्तर मे सीमान्त राज्य था । समुद्रगुप्त ने अपने धरणिबंध के अन्तर्गत उत्तर भारत के समस्त राज्य क्षेत्रों को परास्त करके अपने अधीन कर लिया। इलाहाबाद किले में स्िथत अशोक स्तंभ पर उत्कीण्रित समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ित में इसका उल्लेख है। गुप्त शासकों ने अपनी राजधानी का केन्द्रीकरण पाटिलपुत्र से हटा कर प्रयाग तक करा दिया था। परन्तु ब्यापारिक गतिविधियों पर अधिक ध्यान देने के कारण गुप्तों ने गुजरात तथा निकटवर्ती मध्यप्रदेश के हिस्सों पर अधिक ध्यान दिया। इटावा से गुप्तकालीन अवशेष अभी तक प्राप्त नहीं हुये है। विकल्प रूप में इटावा के पचार इलाके में स्िथत दोवा तीर्थ (अब औरैया जनपद ) का शिवलिगं अवश्य गुप्तकालीन प्रतीत होता है। बीहड़ इलाकों की निकटवर्ती भूमि होने के कारण इटावा में व्यापारिक विकास अपेक्षाकृत अधिक नहीं हो पाया। गुप्तकाल में चीनी यात्री फाहियान ने चक्रनगर,ऐरवा,कुदरकोट को प्रमुख स्थान बताते हुये इसे शान्ित और समृद्धि का प्रतीक बताया। उसने इस क्षेत्र का नाम ए-लो-ई (एल्वी) दिया ओर कहा कि ये नगर बहुत बडे़ जंगल के नजदीक है।
हर्ष के सामन्तों की सूची (जो हर्ष चरित में है) इटावा के लिये प्रथक सातंक का उल्लेख नहीं है। अत: प्रतीत होता है कि इटावा कन्नौज के केन्द्रीय नियंत्रण में ही रहा होगा। ह्वेनसांग ने कन्नौज और निकटवर्ती क्षेत्रों का वर्णन तो अपनी पुस्तकें ‘’सी-यू-की’’ में किया है। कुछ अन्य वर्णनों में प्राचीन आलवी नगरी में स्तूप होने का उल्लेख मिलता है। आलवी को अगर एरवा-कटरा (अब औरैया जिले में) से समीकृत किया जाये तो वहॉ स्तूप का प्रत्यक्षदर्शी ह्वेनसांग अवश्य रहा होगा।
999-1000 ई0 से भारत पर महमूद गजनवी के आक्रमण प्रारभ्म हो चुके थे। भारतीय राज्य क्षेत्र इस समय पूर्व से असंगठित थे। फरिश्ता लिखता है कि कन्नौज के प्रतिहार शासक राजपाल ने गजनवी के विरूद्ध एक सेना गठित की थी जिसमें कांलिजर, ग्वालियर तथा इटावा के लोग भी सम्मिलित थे। इस सेना के गठन के बार में अलबरूनी तथा उतवी (गजनवी के साथ भारत आये दरवारी इतिहासकार )दोनों ही मौन हैं। परन्तु उतबी अपनी पुस्तक किताबिल यामिनी में लिखता है कि 20 दिसम्बर 1018 ईसवी को महमूद गजनवी ने मथुरा को लूटा तथा बरन (बुलन्दशहर) को लूटता हुआ इटावा आया। यहां पर इटावा से 24 किलोमीटर उत्तर की ओर स्िथत मूंज के ब्राह्मणों को हराया और किले को ध्वस्त कर दिया।
उतवी के अनुसार मूंज पर आक्रमण करने के पश्चात महमूद गजनवी ने आसई पर आक्रमण करके वहां के किले को नष्ट किया। पुन:मूंज होता हुआ कन्नौज के प्रतिहार राजवंश के पतन के पश्चात इटावा क्षेत्र में भरों तथा मेबों का अनाधिकृत अधिकार हो गया। भरेह क्षेत्र सेंगरों के पास आ गया। इस समय जिले के अधिकांश क्षेत्रों में मेव तथा भर अपना अधिपत्य स्िथापित किये हुये थे। ये असंगठित जमींदारों के रूप में कार्य कर रहे थे। क्योंकि इटावा पर कुछ समय के लिये कन्नौज का आधिपत्य समाप्त हो चुका था।