प्रचलित मान्यताओं के अनुसार इसी वंश के चन्द्रभान ने प्रतापनेर का नगला अर्थात चन्दरपुरा बसाया। विक्रम सिहं ने विक्रमपुर बसाया। उन्ाके पुत्र प्रतापसिहं ने प्रतापनेर बसाया और वहीं जाकर रहने लगे। इसी समय हरी रतन नाम के मराठा सरदार ने जिसका केन्द्र ग्वालियर था। बाद में उसी ने प्रतापसिहं पर आक्रमण कर दिया। प्रतापसिहं ने उसका मुकाबला किया और प्रतापनेर में एक छोटा किला बनाकर निवास करना प्रारम्भ कर दिया । 1801 तक इटावा के कुछ भागों पर सुमेरशाह के वंशजों का शासन चलता रहा। 1801 में इटावा को अंग्रेजी शासन में शामिल कर लिया गया।
गहड़वाल वंश के पतन के पश्चात आगे के काल में इटावा के लिये दो प्रकार की शक्ितयां आपस में सत्ता के लिये संघर्षरत थीं। एक शक्ित मेंवों और भरों की थी। मेव लोग विभिन्न राजपूत जातियों के मिश्रण से बनी एक जाति थी।
1334-42 के मध्य गंगा यमुना के दोआब में अकाल पड़ा इसमें इटावा भी शामिल था। मुहम्मद तुगलक इस समय खाली हो चुका था। मुहम्म्द तुगलक ने दोआब में कर बृद्धि के आदेश दे दिये। किसानों की खराब दशा का पता चलने पर मुहम्मद तुगलक द्वारा इटावा में राहत भेजने का उल्लेख मिलता है। इटावा जिले के चौहान राजपूत तुलनात्मक रूप में अधिक शक्ितशाली थे। 1252 ई0 में चौहानों ने राजस्व देने से इंकार कर दिया परिणाम स्वरूप बसूल लिया था। इस प्रकार के विद्रोह आगे भी होते रहे जिनका दमन समय समय पर होता रहा। दिल्ली से हो रहे इन आक्रमणों का दुष्परिणाम यह निकला कि इटावा की पुरासम्पदा का व्यापक रूप से विनाश हुआ। आक्रमणों के कारण इटावा में व्यापारिक गतिविधियों का विकास नहीं हो पाया।
सैयद और लोदी काल में इटावा को एक बड़े आक्रमण का सामना करना पड़ा। 1479 ई0 में बहलोल लोदी ने जोनपुर के शासक को हटाकर समस्त क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। जोनपुर में बहलोल ने ख्वाजा जहां मालिक को अपना सूबेदार नियुक्त किया । इटावा भी उसी अधिकार क्षेत्र मे आ गया।