1761 ई0 में पानीपत के युद्ध में मराठे अहमदशाह अब्दाली से हार गये । अब्दाली ने भारत से जाते समय अपने बहुत से प्रदेश रूहेलों में दे दिये। इटावा को लेकर भी रूहेलों और मराठों में युद्ध हुये जिसमें मराठे हार गये। इटावा पर रूहेलों, बरेली, शाहजहांपुर आदि क्षेत्रों पर लड़ाकू जाति का अधिकार हो गया। इटावा पर अधिकार को लेकर अठाहरवीं शताब्दी का छठा दशक त्रिकोणात्मक संघर्ष जैसा चला रहा लेकिन तीनों ही शक्ितयां यह न देख पाई कि भारत के क्षेत्रों में वास्तविक हकदार तो कोई और ही थे।
1602 ई0 में सूरत के तट पर आए अंग्रेज व्यापारी 1757 ई0 के प्लासी युद्ध में तथा 1764 ई0 के बक्सर के युद्ध में बंगाल के नबावों और दिल्ली के सम्राट को परास्त करने के बाद अपनी राजनैतिक सत्ता का लगातार बिस्तार कर रहे थे मराठों और अबध के नवाब के मध्य सत्ता अधिकार में झूलता इटावा अन्त: 10 नबम्बर 1801 ई0 को सहायक संधि के अन्तर्गत अवध के नवाव से ईस्ट इण्डिया कम्पनी को अधिकार मिलने से पूर्व इस पर दोनों सत्ताओं मराठों तथा अवध का अधिकार था। यमुना के दक्षिण का भूभाग जिसमें चक्रनगर, सहसों तथा सिण्डौस शामिल थे मराठों के अधीन था। शेष भाग अवध के पास था। यमुना के पास वाला क्षेत्र ईस्टइण्डिया कम्पनी के पास 1805 ई0में आ गया। 1816 ई0 में कम्पनी इस क्षेत्र पर वास्तविक नियंत्रण स्थापित कर पाई। यह क्षेत्र कानपुर के अधीन कर दिये गये और इटावा में डब्लू0ओ0 अलमान को प्रथम कलैक्टर बनाकर भेजा गया। कुछ समय तो शान्ितमय व्यतीत हुआ। डलहौजी की व्यक्ितगत संधि के कारण विदेशी राज्यों मे अपने अधिकार हनन को लेकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरूद्ध आक्रोश व्याप्त हो चुका था।