दिल्ली में मुगल साम्राज्य के पतनोन्मुखी काल में इटावा फर्रूखाबाद के नबाव के अधिकार में आ गया। कुछ समय के लिये इटावा जयपुर के राजा जयसिहं के अधिकार में भी रहा। परन्तु 1743 ई0में राजा जयसिहं की मृत्यु के पश्चात नबाव कायम खां के अधीन इटावा आ गया। शीघ्र ही रूहेलों से युद्ध मे कायम खां मारा गया। अब उत्तर भारत में अवध की सत्ता अपनी चरम सीमा पर थी। अबध के नवाब ने भी इटावा पर अधिकार का प्रयास किया। दिल्ली के बादशाह सफदरजंग की ओर से उनके बख्शी और इटावा के मूल निवासी नवल राज सक्सेना को फर्रूखाबाद सहित इटावा पर अधिकार करने का फरमान मिला। कुछ समय के लिये कन्नौज को मुख्यालय बनाकर वह इस क्षेत्र पर काबिज भी रहे। 1750 में वह पठानों से युद्ध में मारे गये । 1751 में सफदरगंज और मराठों के बीच संधि हुई। परिणाम स्वरूप इटावा का क्षेत्र मराठों के पास चला गया। मराठों की ओर से जालौन के सूबेदार गोविन्द पंडित के अधीन इटावा को दे दिया गया। 1761 में तक इटावा मराठों के अधीन बना रहा। इसलिये इटावा क्षेत्र के मंदिरों मे मराठा शैली की प्रधानता मिलती है। मध्य काल में जो मंदिर नष्ट कर दिये गये थे। अथवा जो दुर्दशा को प्राप्त हुये थे उनके पुनरूद्धार का प्रयास मराठों ने किया।

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