सन् ११९४ ई० में दिल्ली और कन्नौज के हिंदू राज्यों के पतन हो जाने के बाद यह जिला दिल्ली की मुस्लिम शक्तियों के अधीन हुआ और सन् १८०१ ई० तक किसी न किसी रूप में दिल्ली दरवार या उसके कर दाताओं के अधीन रहा १२ वीं और १३ वीं शताब्दी जिलेमें चौहान तथा अन्य राजपूतों के बसने का समय कहा जाता है
सेंगर राजपूतो ने दो शताब्दी पूर्व ही भरो और मेवो से भूमि छीन कर आनी बस्तिया बिधूना और औरैया तहसीलों में स्थापित कर ली थी गौर ठाकुरों ने सेंगर राजाओं की मेवो को पराजित करने में सहायता की थी इसलिय वह भी सेंगर के समीप ही फफूंद और बिधूना के भागों में बस गए थे उन्ही दिनों परिहार राजपूत पंचनद के प्रदेश में आ कर बसे जमाना और चम्बल के द्धाव को भदौरिया और धाकारो ने अपने अधिकार में कर लिया जिले के पश्चिमी भाग में १२ वीं १३ वीं में सदी में चौहान राजपूतआ आकर रहने लगे जिनसे प्रताप्नेर, चकरनगर, सिकरौली के प्रसिद्ध वंश उत्पन्न हुए एन विजयी राजपूत के साथ अनेक ब्राहम्मण व कायस्थ परिवार भी आये इस शांती सारे जिले में राजपूत ब्राहम्मण तथा कायस्थों ने अपनी बस्तियाँ बनाई उन्होंने (मेव और भरो को जो जिले की बहादुर प्राचीन कोमे थी नष्ट किया जिन्होंने दिल्ली मुस्लीम शासको को बारहवीं और ते हवीं शताब्दी में खूब हैरान किया था उनका आतंक इतना बढ़ गया था की दिल्ली शहर के फाटक संध्या से पहले ही बंद कर दिये जाते थे मुस्लिम शासको ने इटावा के के मेवो को दबले के लिए इन नवातुक राजपूतो को हर प्रकार की सुविधाए दी थीं मेवो के पुराने गढ़ के खंडहर अब भी ढूँढने से भी न मिलेगे भरो के विषय में कुछ इतिहासकार का कहना हैं की ये भरद्वाजगोत्रीय ब्राहम्मण थे किन्तु इनके कर्म क्षेत्रियो के सामान थे इसलिये कुछ विद्धान इन्हें राजपूत ही मानते थे इनके जीवन पद्धति के तीन मुख्य आधार थे, शानदार दुर्ग, दुर्ग के आस पास बुर्ग चंडिका का पूजन एवं मदिरापान करना